Thursday 29 January, 2009


ओह!मेरे सावरे सलोने
तेरे रूप का वर्णन क्या करूँ
श्रृंगार तुझसे हैं बना श्रृंगार से तू नही
तेरे सिर का पा कर स्पर्श
हुआ धन्य यह मोर मुकुट
तेजोमयी मस्तक से हैं
शोभा तिलक की विशाल
आभायुक्त ठोठी पे चमक रहा हीरा लाल
ओह!मेरे सावरे सलोने के
अधरन पे धरी हैं मोहिनी मुस्कान
ऐसे अधरन की शोभा बन रही
वंशी सप्त सुरों की खान
मेरे सावरे सलोने के गले मैं
बनमाल कर रहे गुणगान
हर एक पुष्प गा रहा
बस हो रहा निहाल
जो उससे कान्हा का स्पर्श मिला
आलिंगन कर रहे हैं
मोतियों और हीरो के हार
अंगवस्त्र कटी कशिनी का तो पूशो मत हाल
बस हो गयी कान्हा की
कर रही राधेश्याम राधेश्याम
चरणों के श्रृंगार की करूँ मैं क्या बात
एक बार पड़ जाए जो नजर
तो हटते न करने से कई प्रयास
अलोकिक पग को चूम रहे
पायल का हर घूँगर
साथ कर रहे हर समय गुणगान
बोल रहे हर समय
मेरे कन्हैया हैं गुणों की खान
इसका जो मिला स्पर्श तो
और की अब आशा न हैं बाकी
बस कान्हा के चरणों की नुपुर बनी रहूँ
यही हैं इक्क आस
कान्हा से हैं सब श्रृंगार
श्रृंगार से नही कान्हा
वर्णन कैसे करू तेरा मेरे श्याम
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