Tuesday 20 April, 2010

कान्हा रे ओह कान्हा रे
आप तो जाए बसे हो मथुरा
ध्यान कुछ हमरा भी धरो
आकुल व्याकुल फिर रही हैं
कोई तो सन्देश अपना दो
हवा के झोंके में भी आहट तुम्हारी लगती हैं
फूल और पतियों में भी तुम्ही को ढूँढती फिर रही हैं
अब तो आ जाओ ध्यान कुछ हमरा भी करो
रोज़ तुम्हे देखने की तुमसे बात करने की आदत हैं हमारी
अब यू मुख ना हमसे मोड़ो
काहे जाए बसे हो मथुरा
अपनी बृज गोपीन का ध्यान तो धरो

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