Sunday 13 December, 2009

कान्हा को ख़त.....ओह मनमोहन



मेरा मन मनमोहन हो ना शायद मीरा सा
ना हो मुझ में मीरा सी भक्ति
ना हो शायद तप मीरा सा
होगी ना शायद प्रीत भी मीरा सी
पर मेरा मन ओह मनमोहन
करता हैं चाह तेरे दरस की
मेरा मन मनमोहन हो ना शायद गोपियों सा
ना हो मुझ में गोपी सी प्रतीक्षा भी
ना हो शायद प्रेम भी गोपियों का
पर मेरा मन ओह मनमोहन
करें चाह तेरे आने की
आने की तेरे प्रकट हो दरस दिखाने की
मेरा मन मनमोहन हो ना शायद तेरे भक्तो सा
ना हो शायद मुझमें भक्ति तेरे भक्तो सी
ना हैं मुझ में ज्ञान भी कोई
पर मेरा मन ओह मनमोहन
करें तुझसे ही हर इक बात
तेरी मर्जी हैं आना ना आना
दरस दिखाना ना दिखाना
मोहे अपना बनाना ना बनाना
मेरा मन ओह मनमोहन
क्यों तुझमें खो जाया करता हैं
कुछ तो बताओ इक बार तो चले आओ
मेरा मन ओह मनमोहन.....

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