Sunday 19 April, 2009
कान्हा
किसी पेड़ की शाख पर बेठ
हर शाम जब श्याम बंसी बजाता था
हम दोडी आती थी
सुध बुध अपनी बिसरा
प्यारी तान सुनने आ जाती थी
कान्हा के नन्हे पाँव
ब्रिज धूलि को पावन बनाते हैं
कान्हा की बांसुरी की तान
ब्रिज की हवाओ में रस भर देती हैं
कान्हा के मधभरे बोल
प्यार के गीत बन जाते हैं
कान्हा के गले में पड़ा हार
बहार ला देता हैं
कान्हा की मुस्कान
खुशिया ही खुशिया बिखरती हैं
पता नहीं कान्हा
तू कब आएगा
कब मोहे अपने पास बुलाएगा
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