Wednesday 4 November, 2009

सितमघर,क्यों सितम हमपे ढा रहे हो



तुम तो यूँ मुस्कुरा रहे हो
सितमघर,क्यों सितम हमपे ढा रहे हो
मुरली को पकड़ अधरों से लगा रहे हो
अलोकिक बंसी की धुन तुम बजा रहे हो
पर हमपे तो कयामत ढा रहे हो
तुम तो सितम पे सितम किये जा रहे हो
अपनी नजरो से घायल किये जा रहे हो
कजरारी आँखों से चलाये कितने ही तूने बाण हैं
किया घायल कईयों को ,लगाया मरहम भी कई बार हैं
अब तो आ जाओ,रखो मोरी लाज ओह श्याम
प्रेम रूप घनश्याम,
अपने प्रेम समुद्र की इक बूँद पिला जाओ
श्याम मोरे एक बार आ जाओ

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