Thursday 18 June, 2009

ख़त कान्हा के नाम



ख़त मैं अपने कान्हा के नाम लिखू
सुध बुध अपनी बिसराए दूँ
तेरे ख्यालों मैं ही गुम हो जाऊँ
कभी गोकुल कभी बरसाने
तो कभी वृन्दावन झूमती फिरू
मैं अपने नन्दलाल के आगे पीछे डोलती फिरू
मैं तो उसके दर्शन चाहू
उसके विरह मैं पागल हो जाऊँ
मैं खुद को भूल उसी की हो जाऊँ
ऐसी कोई करो कृपा मेरी श्यामा
श्याम के दर्शन पाऊँ
उसकी बंसी की धुन पे नाचू गाऊँ
थिरके मेरे पाँव उसकी ही तान पर
बजे रागिनिया उसकी मुरली की तान पर
मैं उस मैं खो जाऊँ इस कदर
के और न आये मुझको कुछ भी नजर
हर शय मैं उसकी ही
अनुपम झांकी दिखाई पडे
जित निहारु तित श्याम दिखाई पड़े
मैं उसमें ही खो जाऊँ
मैं उसी की हो जाऊँ
मेरे चाहने से न कुछ होगा
अब कुछ तुम भी करो प्रयास
आ जाओ ना मेरे गिरधर गोपाल

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